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सर्वे भर्वन्तु सुखिन:
-प्रणाम / नमस्ते – शान्ता शमाा
पहली मुलाकात –
इस साल (2016) की बात है यह,
जनर्वरी में देिा उसे पहली बार,
र्वह लगी अतत प्यारी, लुभार्वनी,
भोली-भाली, लच्छेदार पूँछ्र्वाली,
अर्ा-श्र्वेत, अपररचित र्वातार्वरण से बाहरी,
अपनी गोल-गोल अंगरों-सी काली
आूँिें फाड़- फाड़ रही ताकती |
उसका परिचय –
पता िला कक र्वह थी वर्वलायती कु ततया,
अपने माललक के अपार्ामेण्र् में नज़र-बंद
थी कै दी-सी, अतत िंिल स्र्वभार्व की
मुझे देि घुमा ली आूँिें जैसे कक
न ककसी र्वास्ते की िाह मुझसे, पर
जैसे ही फे रा हाथ उस मासम पर
लगा उसे अच्छा मेरा स्पशा अपार |
माललक की निमममता –
जनमनेर्वाला था उस सज्जन का बच्िा,
कहीं दक्षिण कोररया में, उसके िेन्नै
आगमन के बहुत पहले ही अपने पालत
को ककया तनकाल बाहर बेरहम नें
कु छ ददनों तक र्वह लोगों की
बनी रही आकर्ाण के न्र-बबन्दु
कफर उसकी घर्ने लगी िालसयत |
उसका िामकिण –
उसके पालक ने कोई नाम ददया था
उसे, पर देि उसकी िबसरती
मैंने उसका ककया नामकरण ‘सुन्दरी’
मैं उसे खिलाती तनरालमर् भोजन भारतीय
घी की खििड़ी, घी के पराठे, िुपड़ी रोर्ी,
मलाईदार दही-लमचित िार्वल, दर्
र्वह लगी िार्व से िाने, मेरा कहना मानने लगी |
उसका हुआ हाल बुिा –
जैसे-जैसे बढ़ी गमी, उसमें आई नरमी,
रहती मेरी राह देिती, जैसे ही मैं जाती
िब उछल-कद मिाकर िुशी अपनी जताती,
इदा-चगदा घम, पुिकारने पाने प्यार,
आतुर हो अतत वर्वह्र्वल िब नाि ददिाती
मुझसे पा प्यार, पास बैठ आनन्न्दत हो उठती |
उसकी सेवा में –
दोपहर की ल से बिाने मैं उसके
पंजों को र्ोकर, गीले कपड़े से उसका
पोंछ बदन अपने घर ले आती
छलाूँग मार सोफ़े पर बैठ गोद में मेरी
अपनी मृदु, लाल जीभ तनकाल मुझे िार्ती
बेर्ा मेरा जब किज िोलता पता उसे
हो जाता कक लमलनेर्वाले हैं मूँगफली के दाने |
सबसे बड़ा रुपैया –
िौकीदारों ने उसे बाहर ले जाने से
इन्कार कर ददया साफ़, कभी-कभी
कोई ले जाता, पैसे की आशा में,
जब न लमला कु छ भी, उस बेिारी
की हुई उपेिा, मैंने उसके माललक को
समझाया, र्वह हाथ बढ़ाने न था तैयार
कफर क्या, अपने इदा-चगदा वर्वसजान कर
मल-मत्र, पास पड़ी रहती गंदगी के
मैंने बाूँर्े पैसे, कफर भी न हुआ कोई सुर्ार |
स्वास््य पि पड़ा असि –
उसकी िमड़ी पर लाल-लाल चिन्ह
बताने पर उसके माललक ने कर्र्वा ददए
उसके सुन्दर रोएूँ, रूप देि उसका
मुझे हुआ असीम दुि, बैठ गया बेर्े का ददल
हम थे लािार, के र्वल उसे दे सके प्यार
र्ोकने पर बार-बार उसके माललक ने ककया
र्वादा कक दे देगा उसे अपने दोस्त के हाथ |
असल में हुआ यह –
उसका र्वादा तनकला झठा, उस बेिारी को
रि ददया नज़र-बन्द कफर अपने अपार्टामेण्र् में |
ग्यारह जन को हो रहे हैं ददन बाईस,
अब भी हमारे द्र्वार िोलते-बन्द करने की
सुन आर्वाज़ र्वह भौंकती, पता नहीं
मतलब उसकी बोली का, पर मिलती होगी
बाहर आने हम माूँ-बेर्े का प्यार पाने |
अिे निममम मािव ! –
कौन है मनुष्य ? करनेर्वाला जीर्वों के
भार्वों का अनादर ? थोपनेर्वाला अपनी इच्छाओं को उन पर ?
हैं र्वे सजीर्व, खिलौने नहीं तनजीर्व
स्र्वाथी इतना, िुलशयों के ललए अपनी
छीनता आज़ादी उनकी, न करता
परर्वाह सुि-दुि का उनके ख्याल
हमारी भी मज़बरी है कक जीती
मक्िी तनगल िुप रह जाते हैं
लसर्वा इसके कर ही क्या सकते और ?!
मि में बस गई –
याद करते हैं हम उसकी प्रततददन
भोजन करते, आराम करते, लेर्े-लेर्े
बैठे-बैठे “सुन्दरी करती क्या होगी अब ! “
इतनी िंिल, इतनी िुलबुल,
होगी रहती कै से, अन्दर-ही-अन्दर
मन उसका कै से मिलता होगा घमने
हमािी प्रार्मिा है ईश्वि से –
“सर्वे भर्वन्तु सुखिन:
मा कन्श्िद् दुि भाग भर्वेत ् |”
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  • 2. उसका िामकिण – उसके पालक ने कोई नाम ददया था उसे, पर देि उसकी िबसरती मैंने उसका ककया नामकरण ‘सुन्दरी’ मैं उसे खिलाती तनरालमर् भोजन भारतीय घी की खििड़ी, घी के पराठे, िुपड़ी रोर्ी, मलाईदार दही-लमचित िार्वल, दर् र्वह लगी िार्व से िाने, मेरा कहना मानने लगी | उसका हुआ हाल बुिा – जैसे-जैसे बढ़ी गमी, उसमें आई नरमी, रहती मेरी राह देिती, जैसे ही मैं जाती िब उछल-कद मिाकर िुशी अपनी जताती, इदा-चगदा घम, पुिकारने पाने प्यार, आतुर हो अतत वर्वह्र्वल िब नाि ददिाती मुझसे पा प्यार, पास बैठ आनन्न्दत हो उठती | उसकी सेवा में – दोपहर की ल से बिाने मैं उसके पंजों को र्ोकर, गीले कपड़े से उसका पोंछ बदन अपने घर ले आती छलाूँग मार सोफ़े पर बैठ गोद में मेरी अपनी मृदु, लाल जीभ तनकाल मुझे िार्ती बेर्ा मेरा जब किज िोलता पता उसे हो जाता कक लमलनेर्वाले हैं मूँगफली के दाने | सबसे बड़ा रुपैया – िौकीदारों ने उसे बाहर ले जाने से इन्कार कर ददया साफ़, कभी-कभी कोई ले जाता, पैसे की आशा में,
  • 3. जब न लमला कु छ भी, उस बेिारी की हुई उपेिा, मैंने उसके माललक को समझाया, र्वह हाथ बढ़ाने न था तैयार कफर क्या, अपने इदा-चगदा वर्वसजान कर मल-मत्र, पास पड़ी रहती गंदगी के मैंने बाूँर्े पैसे, कफर भी न हुआ कोई सुर्ार | स्वास््य पि पड़ा असि – उसकी िमड़ी पर लाल-लाल चिन्ह बताने पर उसके माललक ने कर्र्वा ददए उसके सुन्दर रोएूँ, रूप देि उसका मुझे हुआ असीम दुि, बैठ गया बेर्े का ददल हम थे लािार, के र्वल उसे दे सके प्यार र्ोकने पर बार-बार उसके माललक ने ककया र्वादा कक दे देगा उसे अपने दोस्त के हाथ | असल में हुआ यह – उसका र्वादा तनकला झठा, उस बेिारी को रि ददया नज़र-बन्द कफर अपने अपार्टामेण्र् में | ग्यारह जन को हो रहे हैं ददन बाईस, अब भी हमारे द्र्वार िोलते-बन्द करने की सुन आर्वाज़ र्वह भौंकती, पता नहीं मतलब उसकी बोली का, पर मिलती होगी बाहर आने हम माूँ-बेर्े का प्यार पाने | अिे निममम मािव ! – कौन है मनुष्य ? करनेर्वाला जीर्वों के भार्वों का अनादर ? थोपनेर्वाला अपनी इच्छाओं को उन पर ? हैं र्वे सजीर्व, खिलौने नहीं तनजीर्व स्र्वाथी इतना, िुलशयों के ललए अपनी
  • 4. छीनता आज़ादी उनकी, न करता परर्वाह सुि-दुि का उनके ख्याल हमारी भी मज़बरी है कक जीती मक्िी तनगल िुप रह जाते हैं लसर्वा इसके कर ही क्या सकते और ?! मि में बस गई – याद करते हैं हम उसकी प्रततददन भोजन करते, आराम करते, लेर्े-लेर्े बैठे-बैठे “सुन्दरी करती क्या होगी अब ! “ इतनी िंिल, इतनी िुलबुल, होगी रहती कै से, अन्दर-ही-अन्दर मन उसका कै से मिलता होगा घमने हमािी प्रार्मिा है ईश्वि से – “सर्वे भर्वन्तु सुखिन: मा कन्श्िद् दुि भाग भर्वेत ् |” ------